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आयुक्त सुमित अग्रवाल की कार्यवाही: प्रशासनिक अनुशासन या बदले की राजनीति?

दुर्ग// नगर पालिका निगम को शहरी सरकार कहा जाता है, क्योंकि यह एक स्वतंत्र संवैधानिक निकाय होते हुए शहर के विकास, व्यवस्था और प्रशासनिक संतुलन की पूरी जिम्मेदारी उठाता है। ऐसे में निगम आयुक्त की भूमिका केवल अधिकारी भर की नहीं, बल्कि शहरी लोकतंत्र के संरक्षक की होती है। लेकिन दुर्ग नगर निगम की वर्तमान स्थिति यह सवाल खड़ा कर रही है कि क्या निगम आयुक्त सुमित अग्रवाल प्रशासन चला रहे हैं या फिर चयनित अधिकारियों को बचाने और चुनिंदा कर्मचारियों पर कार्रवाई करने की नीति अपना रहे हैं…?

निगम आयुक्त को संवैधानिक शक्तियां प्राप्त होती हैं, अनुशासनात्मक कार्रवाई से लेकर प्रशासनिक सुधार तक। लेकिन जब यही शक्तियां भेदभाव और चयनात्मक निर्णयों का माध्यम बन जाएं, तब सुशासन की जगह बदहाली पनपने लगती है। दुर्ग नगर निगम में हालिया घटनाक्रम इसी ओर इशारा कर रहा है।

अनुकंपा नियुक्ति में दोहरा मापदंड…

हाल ही में निगम में अनुकंपा नियुक्ति को लेकर बड़ी कार्रवाई की गई। अनियमितता के आरोप में दो कर्मचारियों को सेवा से मुक्त कर दिया गया, वहीं एक तात्कालिक चपरासी ग्रेड कर्मचारी जिसके पास न तो कोई साइनिंग अथॉरिटी थी और न ही कोई प्रशासनिक शक्ति को कई महीनों से निलंबित कर दिया गया। निगम के भीतर इस कार्रवाई को अनुशासनात्मक कदम मानकर सराहा भी गया।

लेकिन यही सख्ती तब सवालों के घेरे में आ जाती है, जब इसी प्रकृति के एक गंभीर मामले में उपायुक्त मोहेन्द्र साहू को आयुक्त द्वारा क्लीन चिट दे दी जाती है।

आत्महत्या, सुसाइड नोट और अनदेखे सवाल…

प्राप्त जानकारी के अनुसार, लगभग डेढ़ वर्ष पूर्व निगम कर्मचारी अशोक करिहार ने कथित तौर पर उपायुक्त मोहेन्द्र साहू की प्रताड़ना से व्यथित होकर आत्महत्या कर ली। बताया जाता है कि इस संबंध में एक सुसाइड नोट भी सामने आया था, जिसमें प्रताड़ना का उल्लेख था। यह विषय गंभीर जांच की मांग करता है कि प्रताड़ना किस स्तर पर हुई और आत्महत्या के लिए कौन जिम्मेदार था।

इसके बावजूद, मामला ठंडे बस्ते में डाल दिया गया।

वरीयता सूची को ताक पर रखकर नियुक्ति…

सबसे चौंकाने वाली बात यह रही कि आत्महत्या के बाद मात्र 10 दिनों के भीतर, बिना विधिवत मृत्यु प्रमाण पत्र के, अशोक करिहार के पुत्र को अनुकंपा नियुक्ति दे दी गई। जबकि अनुकंपा नियुक्ति के लिए निगम में क्रमवार वरीयता सूची मौजूद थी, जिसमें कई अन्य पात्र आवेदकों के नाम पहले से दर्ज थे।

स्थापना शाखा के प्रभारी के रूप में उपायुक्त मोहेन्द्र साहू ने न केवल इस वरीयता सूची को दरकिनार किया, बल्कि अपनी प्रशासनिक स्थिति का लाभ उठाते हुए तात्कालिक नियुक्ति कर दी। निगम के गलियारों में उस समय यह विषय व्यापक चर्चा में रहा, लेकिन इसके बावजूद न तो जांच हुई और न ही कोई कार्रवाई।

पुराने मामलों में नोटिस, नए मामलों में चुप्पी…?

एक ओर जहां 6–7 साल पुराने मामलों में दर्जनों नोटिस जारी किए जा रहे हैं, वहीं दूसरी ओर आत्महत्या, सुसाइड नोट, वरीयता सूची उल्लंघन और नोटशीट में कथित काट-छांट जैसे गंभीर आरोपों पर निगम आयुक्त की चुप्पी कई सवाल खड़े करती है।

क्या यह केवल प्रशासनिक चूक है, या फिर चुनिंदा अधिकारियों को बचाने की सुनियोजित रणनीति?

सुशासन के दावों पर सवाल….

प्रदेश के उपमुख्यमंत्री अरुण साव सुशासन की बात करते हैं, मुख्यमंत्री जनता के अधिकारों की बात करते हैं, लेकिन उन्हीं के शासनकाल में दुर्ग नगर निगम में आयुक्त सुमित अग्रवाल की कार्यप्रणाली लगातार संदेह के घेरे में आती जा रही है।

यदि निगम आयुक्त ही भेदभावपूर्ण कार्रवाई करेंगे, तो फिर आम कर्मचारी और आम नागरिक न्याय की उम्मीद किससे करेगा?

निष्कर्ष….

मृतक के पुत्र को अनुकंपा नियुक्ति का अधिकार था, इसमें कोई विवाद नहीं। लेकिन प्रश्न यह है कि क्या नियमों, वरीयता और प्रक्रिया को ताक पर रखकर की गई कार्रवाई भी जायज ठहराई जा सकती है?
और यदि नहीं, तो फिर एक मामले में कठोरता और दूसरे में संरक्षण क्यों?

दुर्ग नगर निगम में आज यही सबसे बड़ा सवाल है,
आयुक्त सुमित अग्रवाल प्रशासन चला रहे हैं या अपनी पसंद-नापसंद के आधार पर सत्ता का प्रयोग….?

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