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महापौर की भारी जीत, हल्की प्रशासनिक पकड़, शहरी सरकार में निष्क्रियता, गुटबाजी और भेदभाव ने दुर्ग को बदहाली के मुहाने पर ला खड़ा किया..

दुर्ग// भाजपा की लगभग हर महिला नेत्री की यह ख्वाहिश रही है कि वह सरोज पाण्डेय जैसी प्रभावशाली नेता बने, लेकिन हकीकत यह है कि वर्तमान दुर्ग भाजपा में सरोज पाण्डेय के कद, निर्णय क्षमता और प्रशासनिक पकड़ के आसपास भी कोई महिला नेत्री दिखाई नहीं देती। विडंबना यह है कि “सरोज पाण्डेय जैसा बनने” की कोशिश में कई नेत्रियां अपना स्वयं का राजनीतिक अस्तित्व तक भूल बैठती हैं। यही स्थिति आज दुर्ग नगर निगम की वर्तमान महापौर अलका बाघमार की बनती जा रही है।

चुनाव में भारी मतों से जीत दर्ज करना एक बात है, लेकिन शहरी सरकार को कुशलता से चलाना बिल्कुल दूसरी। दुर्भाग्य से बीते छह महीनों में दुर्ग नगर निगम जिस बदहाल स्थिति से गुजर रहा है, वैसी तस्वीर पिछले 20–25 वर्षों में भी देखने को नहीं मिली। धीरज बाकलीवाल के कार्यकाल की व्यवस्था से भी नीचे गिर चुकी वर्तमान शहरी सरकार की हालत नगर प्रशासन की विफलता का खुला प्रमाण है।

शहर में जिन विकास कार्यों का ढिंढोरा पीटा गया, वे आज खुद अपनी बदहाली पर आंसू बहा रहे हैं। अतिक्रमण हटाने के नाम पर “कपड़ा लाइन” को अतिक्रमण मुक्त करने की घोषणाएं तो खूब हुईं, लेकिन महापौर की निष्क्रियता और भेदभावपूर्ण नीति ने इस मुद्दे को मजाक बनाकर रख दिया। स्थिति यह है कि न तो व्यापारियों को हटाया जा सका, न ही उन्हें व्यवस्थित रूप से विस्थापित किया गया। परिणामस्वरूप “मोर शहर मोर जिम्मेदारी” जैसी संस्थाओं के संचालकों को राजनीतिक असफलता का खामियाजा भुगतना पड़ रहा है।

धनवानों द्वारा किए जा रहे अवैध कब्जों पर महापौर की चुप्पी सबसे बड़ा सवाल खड़ा करती है। समृद्धि बाजार के सामने हो रहा अतिक्रमण हो या शहर के प्रमुख चौक-चौराहों पर कब्जाधारियों की मनमानी– सब कुछ जानकारी में होने के बावजूद मौन रहना महज लापरवाही नहीं, बल्कि मौन समर्थन की श्रेणी में आता है। यह मौन भविष्य में किसी बड़े विवाद की नींव रख रहा है, जिसकी जिम्मेदारी से महापौर बच नहीं सकतीं।

सड़कों पर खुलेआम घूमते मवेशी, यातायात की बदहाल व्यवस्था और महापौर कार्यालय व निगम कार्यालय के बीच अवैध बाजार का संचालन– इन सब पर चुप्पी साधे रखना इस बात का संकेत है कि शहरी सरकार जमीनी समस्याओं से ज्यादा प्रोटोकॉल और शासकीय सुविधाओं में व्यस्त है। जनता की परेशानियां, व्यापारियों की तकलीफें और शहर की अव्यवस्था मानो प्राथमिकता सूची से बाहर कर दी गई हैं।

निगम प्रशासन और कर्मचारियों के बीच ही नहीं, बल्कि जनप्रतिनिधियों के बीच भी आपसी चर्चाएं अब खुलकर सामने आने लगी हैं। अपनी ही पार्टी के पार्षदों से दूरी बनाकर, चंद चाटुकारों के सहारे शहर को डूबते देखने की नीति ने भाजपा के भीतर भी असंतोष को हवा दी है। बड़े-बड़े आयोजनों के बाद झूठी उपलब्धियों की प्रेस विज्ञप्तियां और सोशल मीडिया रीलों के जरिए “फर्जी विकास” दिखाकर जनता को गुमराह करने की कोशिश जरूर की जा रही है, लेकिन जमीनी सच्चाई किसी फिल्टर में कैद नहीं हो सकती।

इसका सीधा राजनीतिक नुकसान आने वाले चुनावों में दिख सकता है। यदि विधायक से मंत्री बने गजेंद्र यादव को पुनः भाजपा से टिकट मिलता है, तो शहरी सरकार की यह विफलता उन्हीं के खाते में भी जाएगी। भाजपा संगठन में चुनावी तैयारियां पहले ही शुरू हो जाती हैं और दो साल बीत जाने के बाद भी शहर में कोई ठोस उपलब्धि न दिखना चिंता का विषय है। शेष दो साल कैसे गुजरेंगे, यह समय बताएगा, लेकिन महापौर और विधायक के बीच दिख रही गुटबाजी निश्चित रूप से शहर के विकास में सबसे बड़ी बाधा बन चुकी है।

निष्कर्ष साफ है:—
ट्रिपल इंजन की सरकार का दावा दुर्ग में दम तोड़ता नजर आ रहा है। नकल की राजनीति, भेदभावपूर्ण नीति, प्रशासनिक निष्क्रियता और केवल प्रोटोकॉल का आनंद– इन्हीं आधारों पर यदि शहरी सरकार चलती रही, तो इतिहास में यह कार्यकाल “सबसे अवसरवादी और सबसे असफल” महापौर कार्यकाल के रूप में दर्ज होने से कोई नहीं रोक पाएगा।

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