विश्व आदिवासी दिवस विशेष: धरती मां को कष्ट न ह, इसलिए बिना हल चलाए खेती करते हैं आदिवासी|

पंडरिया और बोड़ला ब्लॉक के दूरस्थ अंचल के गांवों में कई ऐसे जनजातीय समूह हैं, जो आज भी प्रकृति और प्राकृतिक संसाधनों पर आश्रित हैं। ये प्रकृति व धरती को मां मानते हैं, इसलिए धरती पर हल चलाए बिना ही बेवर खेती करते हैं। इनका मानना है कि हल चलाने से प्रकृति व धरती मां को कष्ट होगा।
खेती से कोदो कुटकी का इतना उत्पादन मिल जाता है, जिससे कि सालभर परिवार का गुजारा चल जाता है। तेलियापानी लेदरा, बाहपानी, बासाटोला समेत अन्य गांवों के बैगा-आदिवासी समुदाय सदियों से बेवर खेती कर रहे हैं। बैगा समाज के मुखिया इतवारी मछिया ने कहा मां अपने पुत्र का पेट भरती और संरक्षण करती है। उसी तरह धरती भी उनके लिए अनाज उगाती है।
छग में कबीरधाम एक मात्र ऐसा जिला है, जहां विशेष पिछड़ी जनजातियों में शामिल बैगा जनजाति की सर्वाधिक जनसंख्या निवास करती है। जिले में चिह्नांकित विशेष पिछड़ी बैगा जनजाति की 263 गांव (बसाहट) है। इसमें सर्वाधिक गांव बोड़ला ब्लॉक में है। बोड़ला ब्लॉक में विशेष पिछड़ी बैगा जनजाति गांव 183, पंडरिया ब्लॉक में 75 गांव हैं।
जनजातियों की प्राचीन परंपरा गोदना जनजाति समुदाय के जीवन की मुख्य क्रिया है। उनका मानना है कि मृत्यु के बाद भी यह चिन्ह उनके साथ रहता है। गोदना जंग लगी सुई या पारंपरिक उपकरण से शरीर पर गोदा जाता है, इससे उपजने वाले दर्द को कम करने के लिए इस पर मालवन वृक्ष का रस लगाते हैं। वर्तमान में गोदना ने टैटू का रूप ले लिया है।