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‘सलवा जुडूम’ पीड़िता ने किया अपना दर्द बयां,नक्सली के बाद अब सरकार भी कर रही है परेशान

रायपुर।सुकमा के जगरगुंडा के मडकम भीमा ने अपना दर्द बयां किया है उन्होने कहा की-एक दिन नक्सली मेरे घर में घुस गए। मेरे बुजुर्ग पिता हुंगा को घेरकर लाठियों से पीटने लगे। उन्हें तब तक मारते रहे जब तक सिर से फटकर खून नहीं बहने लगा। हाथ-पैर भी तोड़ दिए। मैं अपने पिता को तड़पकर मरता देखता रहा और नक्सलियों की हिंसा के आगे बेबस था। उन्होंने मेरे पिता को ये कहते हुए मार दिया कि वो सलवा जुडूम आंदोलन का समर्थन कर रहे हैं, पुलिस की मदद कर रहे हैं। खून से लथपथ अपने पिता की लाश को गांव से थोड़ी दूर ले जाकर मैंने अंतिम संस्कार किया और उसी दिन घर के बाकी सदस्यों को लेकर जंगल के रास्ते तेलंगाना में जा बसा। मड़कम भीमा (बीच में) जैसे कई लोग तेलंगाना और आंध्र प्रदेश से रायपुर पहुंचे हैं।

मड़कम जैसे बहुत से लोग तेलंगाना और आंध्र प्रदेश से पैदल मार्च करते हुए राजधानी रायपुर में जमा हुए हैं। वह छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल से मिलकर उन्हें अपनी समस्याएं बताना चाहते हैं। मड़कम ने कहा हम वहां की जमीन पर खेती करने लगे थे, मगर अब मुश्किल आन पड़ी है। तेलंगाना की सरकार भी जुल्म कर रही है। खेतों में सरकार पौधारोपण कर रही है, हमारे झोपड़ियों को तोड़ा जा रहा है। नक्सली हिंसा की त्रासदी झेल चुके ये लोग अब राज्य सरकार से मिलकर अपने विस्थापन और वनाधिकार के तहत छत्तीसगढ़ में ही सुविधाएं दिए जाने की मांग कर रहे हैं।ग्रामीण आंध्र प्रदेश और तेलंगाना से पदयात्रा करते हुए रायपुर पहुंचे हैं।

चेकले मांदी की शुरूआत
अब चेकले मांदी यानी सुख और शांति के लिए एक बैठक, ग्रामीण ये बैठक कर रहे हैं। मड़कम की तरह आंध्र प्रदेश और तेलंगाना गए सैकड़ों ग्रामीण अब एकजुट हुए हैं। रायपुर में इन्होंने सर्व आदिवासी समाज, वलसा आदिवासुलु, नई शांति प्रक्रिया जैसी संस्थाओं से जुड़ कर सरकार से वार्ता करने का मन बनाया है। ये सभी रविवार को राजधानी के टिकरापारा स्थित गोंडवाना भवन पहुंचे सोमवार को मुख्यमंत्री से मिलने का प्रयास करेंगे। इसके बाद ये ग्रामीण दिल्ली जाकर केंद्र सरकार से भी विस्थापित ग्रामीणों की ओर ध्यान देने की मांग करेंगे।छत्तीसगढ़ सरकार से ग्रामीणों की मांग है कि उन्हें फिर से बसाने की व्यवस्था करें

इस वजह से गांव छोड़कर भागे
आदिवासी छत्तीसगढ़ में साल 2005 में बढ़ती नक्सल घटनाओं पर रोक लगाने के मकसद से ग्रामीणों को हथियार थमाए गए। इस अभियान को नाम दिया गया, सलवा जुडुम इसका अर्ध होता है ‘शांति का कारवां’। इसमें पुलिस और अर्धसैनिक बल के अलावा ग्रामीण भी नक्सलियों को मार रहे थे। इससे गुस्साए नक्सलियों ने ग्रामीणों को निशाना बनाया। जुडूम अभियान की हिंसा की वजह से परेशान होकर हजारों आदिवासी बस्तर के कई जिलों को छोड़कर आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में जा बसे। इन दिनों कश्मीरी हिंदुओं की बड़ी चर्चा है जो ऐसे ही हिंसा का शिकार हुए और उन्हें अपनी जमीन छोड़नी पड़ी, बस्तर भी इसी तरह के हालातों से गुजरा।ग्रामीण चाहते हैं कि उन्हें छत्तीसगढ़ में सुरक्षित जगहों पर बसाकर रोजगार और शिक्षा की व्यवस्था की जाए

ग्रामीण चाहते हैं कि उन्हें छत्तीसगढ़ में सुरक्षित जगहों पर बसाकर रोजगार और शिक्षा की व्यवस्था की जाए

अब ये आ रही समस्या
भीमा की तरह नक्सल हिंसा से तंग आकर तेलंगाना गए ग्रामीण माड़ी वीरेश ने बताया कि अब तेलंगाना और आंध्र प्रदेश की सरकारें कोविड काल के दौरान अचानक हमारे खिलाफ हो गईं। जिन जंगलों को काटकर छत्तीसगढ़ के आदिवासी वहां खेती किसानी कर रहे थे, उन जमीनों पर अब तेलंगाना और आंध्र प्रदेश का वन विभाग पौधरोपण कर रहा है। झोपड़ियों पर बुलडोजर चलाए जा रहे हैं, खेती छिन जाने की वजह से ग्रामीण वहां कुली मजदूरी का काम करने के लिए मजबूर हैं। बच्चों को शिक्षा का अधिकार तक नहीं मिल पा रहा, जब वहां मदद मांगते हैं तो उन राज्यों की सरकार कह देती है कि जाकर अपनी छत्तीसगढ़ सरकार से मदद मांगो।छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल से मिलकर यह तमाम आदिवासी अपनी नई जिंदगी के लिए दरख्वास्त करेंगे।

600 गांव के 50,000 से ज्यादा ग्रामीण छत्तीसगढ़ छोड़कर भागे
नक्सल हिंसा की वजह से अपना गांव छोड़ने वाले ग्रामीणों के लिए अब सामाजिक कार्यकर्ताओं शुभ्रांशु चौधरी संघर्ष कर रहे हैं। शुभ्रांशु बताते हैं कि सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 600 गांवों के 50,000 से अधिक ग्रामीण आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में जाकर बसने को मजबूर थे, क्योंकि छत्तीसगढ़ में नक्सली और पुलिस दोनों के बीच कुछ ग्रामीण खुद को पिसता हुआ महसूस कर रहे थे। वह इस झमेले से बचना चाहते थे, इसीलिए अपनी जमीन छोड़कर भागने को मजबूर हुए। मगर अब उनके सामने शिक्षा, रोजगार और जीवन यापन का संकट आ खड़ा हुआ है। ऐसे में राज्य सरकार और केंद्र सरकार को मिलकर एक रणनीति बनानी होगी, जिससे इन विस्थापितों की जिंदगी में सुधार किया जा सके। हैं तो अपने ही लोग न।

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